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जिंदगी ले के चली

राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र.

रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.

फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, ‘उसको’ जब भी अगर.

शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.

जिंदगी में लेने आता एक बार, पर-
बैठती हूँ रोज, ‘बस्तीवी’ सज संवर!

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