राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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‘दिल चीर कर’ कमाने की इच्छा पूरी हो गई,
भगवान् बनाने के लिए, ‘एम् डी’ जरूरी हो गई.
दूध हम पीते थे जिस माँ के तनो से लिपट कर,
उसको ‘उठा’ कर के सजाना, डाक्टरी हो गई.
सलामत ‘जिगर’ चाहिए तो धरो पूरे पांच लाख,
सुश्रुत के चोले में हकीमी, अन्गुलि-मारी हो गई.
जाइए, जंचवा के निर्णय लीजिये, बच्चे का भ्रुड,
आदमी के जमीर को भी ‘एक गुप्त बीमारी’ हो गई.
पांच सौ में खून दे कर, दारू के पैसे ले गया.
आजादी की सुभाष! ‘कितनी मजदूरी’ हो गई?
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