राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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बसंत पर खुशियों के गूँज में उस सख्श की भी छीड आवाज जो प्रकृति की सुषमा से आह्लादित नहीं हो पा रहा है.
जिसके लिए गर्मी, जाड़ा बरसात बस पेट भरने की जद्दोजहद में निकल जाते हैं. और जो मौसम बहुत से लोगो के
लिए मनोरंजन का साधन बन जाता है, उसके लिए महज एक दूसरी सुबह.
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लिखें कुछ मादकता के एहसास,
अधनंगा चला आ रहा है मधुमास,
उनसे पूछो आमो के बौर की ‘आस’,
जो गुठलियाँ खाएं या करे उपवास.
‘ब्रिजो’ के नीचे रहने वालो को नसीब,
मल-मूत्र के फूले पलाश का सुहास.
ऐसा लगता है कि जवानी फूट रही,
उसको माघ में भी नहीं था लिबाज.
हूक सी उठाती है, कोयल की आवाज,
माँ की छाती से जब दूध की नहीं आस.
‘भींचकर’ आलिंगन होगा, चुम्बन होगा,
आया है चुनाव इस बार फागुन के पास.
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दिल पे जा के लगे, तो आह भी उसे और हाथ भी.
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