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हुस्न के जलवो से फिर

राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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Courtesy: Google
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‘हुस्न के जलवो से फिर’ उसकी कलम मजबूर है,
‘घर सजाने’ के लिए लिखता है, जो मशहूर है.

धर्म ग्रंथो और बुत को, बेफिक्र नंगा कर दिया,
‘ब्रिटेन की नागरिकता’ पाने का यही दस्तूर है.

झूम जाती महफिले, की भाव ऐसे भर दिए,
शायरी लिखता गजब है, यदि ‘बियर’, ‘तंदूर’ है.

‘अलख की आग’ लगा, सत्ता समूची उलट दी,
इस बार मिया ‘ग़ालिब’ को ‘पद्म श्री’ मंजूर है.

‘मटेरियल’ के होड़ में, बस्तिया गन्दी छान दी,
एहतियातन, ‘बिसलरी’ से धो के खाते अंगूर है.

शान में चोखे लिखे, बजते हैं ‘छब्बीस जनवरी’ पर,
उससे पूछो ‘हश्र क्या’ जिसका मिटा सिन्दूर है.

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मै अगर ये कहू की ये रचना ‘अदम’ साहब को श्रद्धांजलि के लिए है, तो छोटे मुह बड़ी बात होगी.
इसलिए मै ये कहोंगा की उनको एकलव्य की तरह दिल में मूरत बना कर पूजते हुए कुछ लिख दिया.

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