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स्लम

राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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कुछ टूटे फूटे मकां,
किसी के लिए घर.
किसी के लिए स्लम.

प्लास्टिक की छते,
प्लास्टिक से पटी नालिया,
पर जीवंत चेहरे.

दुःख, दर्द, हसी, ख़ुशी, समेटे.
हर भाव साफ़ साफ़ दिखाते.

उन्ही झोपड़ियो के बीच,
मंदिर है,
नायी की दूकान है,
समोसे वाला, अखबार वाला.
सब है, उसी छोटी सी जगह में.

अब वहा नई दुनिया की-
सबसे ऊची ईमारत बनेगी.

सब पर बुलडोजर चल गया.

अब नहीं दिखाती माये,
कतार लगाये,
बच्चो के स्कूल से –
छूटने के इन्तजार में.
बगल का स्कूल भी ढह गया.
वहां इंटर नेशनल स्कूल खुलेगा.

जगह वही है.
किसी के लिए स्लम,
किसी के लिए घर,
किसी के लिए फ़्लैट.

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