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मेरी विरार लोकल से यात्रा

राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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Courtesy: Frontlineonnet.com
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अभी हाल में एक फिल्म आई थी, ‘वंस अपान ए टाइम इन मुंबई’. इसमे एक धाँसू डायलोग था ‘हिम्मत बताने की नहीं दिखने की चीज़ होती है.’ मै जब भी दादर से विरार ट्रेन में चढाने का विचार करता हूँ, न चाहते हुए भी अपने आपको ‘इमरान हाश्मी’ के दर्जे की बहादुरी के लिए तैयार करना पड़ता है. आज फिर मै वीरता के कई कीर्तिमान स्थापित करते हुए, अपनी भीड़ से डराने की कमजोरी से उभरते हुए, विरार लोकल पर चढ़ा. कमर, कूल्हो, छाती, मुह, सब जगह मानवीय दबावो को सहता हुआ, घिसटते, पिसते, एक कोने में जा के दुबक गया.

वही पर कुछ लोग मृत्यु के पश्चात के जीवन की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे. मै अपनी जीर्ण शीर्ण अवस्था में उनकी चर्चा में ऐसा विह्वल हो गया की अपने जिन्दा होने का एहसास तब पता चला जब ट्रेन बांद्रा पहुचने वाली थी, और नाले की तीक्ष्ण गंध, जिसे महिम वासी ‘मीठी नदी’ कह के बुलाते हैं, नथुनो को भेदती हुयी ‘कापचिनो काफी’ जैसा झटका नहीं दे दी.

जागने के बाद मैंने ध्यान दिया की काफी सारे लोग आज कल कान में चौबीसो घंटे हेडफोन लगाये रहते हैं, और सर को तरह तरह से मटकाते रहते हैं. मुझे तो ऐसा लगता है की वास्तविक संकट को नकारने के लिए जैसे शुतुरमुर्ग अपना सर जमीन में डाल देता है, वैसे ही ये लोग आज कल के ‘श्रद्धा और विश्वास’ से परिपूर्ण गाने सुनते रहते हैं. कुछ लोग घडी घडी फेसबुक पर अपनी स्थिति का अपडेट डालते रहते हैं, मानो धरती की कक्षा छोड़ के किसी उपग्रह की परिधि में जा रहे हो, और ‘नासा’ को ये लगातार बता रहे हो कि अब ओजोन की परत जा चुकी है, और मेरा अक्षांश और देशांतर फलाना-फलाना है.

बांद्रा से एक सज्जन ‘आज भारत को आजाद कर देंगे’ के मनोभाव लेके चढ़े और सबको धकियाने लगे, किन्तु जनता जनार्दन ने अपना भारी मत गलियोँ और जवाबी धक्के के रूप में देते हुए, उन्हें भारतीय बल्लेबाजो की तरह ‘बैक फुट’ पर ला दिया. इसके बाद तो उन्होने अपना शरीर नव विवाहिता;की तरह जनता को समर्पित कर दिया.

परन्तु कुछ लोग हमारे भारतीय नेताओं की तरह, धैर्य दिखाते हुए, बहलाते फुसलाते हुए, अपनी उम्र का हवाला देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, फिर तीन की सीट पर चौथे स्थान पर लटक जाते हैं. उनकी स्थिति उस त्रिशंकु की तरह है, जिसे खड़े रहने में भी गुरेज है और चूँकि पूरी सीट मिली नहीं है तो बाकि लोगो से इर्षा भी है. ऐसे लोग और कुछ खड़े लोगो के मन में लगातार समाजवाद और साम्यवाद पनपता रहता है और सारी स्थिति का जिम्मेवार ब्रह्मण या मनु वादी सोच को ठहरा कर कर अति आबादी में अपने सहयोग को झुठलाना चाहते हैं. किन्तु सीट पा चुके लोग भी किसी उद्योगपति की तरह अपने खर्च किये हुए पैसे हो पूरी तरह से निचोड़ लेना चाहते हैं, और अपने स्टेशन तक पूरी तरह से ‘सांसद फंड’ की तरह सीट का इस्तेमाल अपनी मर्जी के अनुसार करके किसी परिचित को दे कर चले जाते हैं.

इतने में किसी ने अपने जेब में हाथ डाला और चिल्लाया मेरा मोबाइल यहीं कहीं गिर गया है. फिर अपने आप को ‘पायरेट्स आफ कैरेबियन’ समझते हुए पूरे डब्बे रूपी समुद्र को खंगाल डाला. तभी किसी ने अन्ना हजारे कि तरह उसे अपने गिरेबान में फिर से झांकने कि सलाह दी, और हमारी सरकार कि गलतियो कि तरह ही मोबाइल भी उसके बैग में मिल गया. फिर किसी सरकारी प्रवक्ता जैसे दांत निपोरते हुए, इससे पहले कि कोई अपने सब्र का बांध तोड़ दे और चप्पले रसीद करे, एक निर्लज्ज सा अर्थहीन ‘सारी’ बोल दिया.

मेरा भी स्टेशन आया, और मै लखनवी नजाकत के साथ उतरने ही वाला था कि, अमेरिका जैसे ‘ग्लोबल वार्मिग’ को नकारता है, लोगो को मेरा अस्तित्व दिखाई ही नहीं पड़ा, मानो मै कोई ‘एक कोशकीय’ जीव हूँ. लोगो ने मुझे फिर से ला के उसी जगह खड़ा कर दिया. मेरी स्थिति डिम्ब से मिलन को व्याकुल उस शुक्राणु कि तरह थी जिसे ‘कंडोम’ जैसी एक पारदर्शी झिल्ली से रोक लिया हो.

तमाम कोशिशो के बाद भी मै इलाहाबाद विश्वविध्यालय के छात्रो कि तरह आईएस परीक्षा निकालने में नाकाम रहा. तब किसी सहृदय व्यक्ति ने सिफारिश के जरिये, मुझे बाहर फेकने का ख़ुफ़िया प्लान बनाया. अगले स्टेशन पर उन लोगो ने मुझे बाहर फेका और फिर मेरे बैग को, जैसे हमने पहले अंग्रेजो को बाहर निकला और फिर ‘बेटन दंपत्ति’ को खिला पिला के तृप्त करके. ट्रेन से फेके जाने के बाद मै भी ब्रिटिश राज कि तरह अपने पैरो पर खड़ा नहीं रह पाया और धडाम से गिरा. लोगो ने एक छड मेरी तरफ, आस्था चैनल कि तरह डाला, फिर ‘बिग बॉस’ सीरियल कि तरह महिला कोच की तरफ देखने लगे.

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