राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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मै खिली हूँ, मेरा यौवन,
मै हसू तो हसे उपवन,
दंभ है मुझे निज गेह से,
नयन पल भर न हटता,
मेरा नायक देह से.
पर पूछ बैठा एक दिन,
“हे प्रिये!
तन की गमक, सींचता जिसको है यौवन,
क्या तोड़ सकता है समय बंधन “?
झुर्रियां, लाली न रह जाएगी अधर पर,
गेसुओं का रंग मेहदी उड़ न जायेगा?
सबको लेके जाता है समय उस हाल तक,
कैसे छोड़ेगा तुझे चिर काल तक.
सोच कर योँ बह पड़ा,
निज बाधा अवसाद,
दंभ टूटा,
रूप यौवन का क्षडिक उन्माद!
सु-विचारो से यदि-
भरा नहीं ये मस्तिष्क,
तो व्यर्थ है काया परिष्कृत.
वर्ण गोरा जो मिला तेरे ह्रदय को,
ढक सकेगी,
तभी तेरी श्याम काया.
नूर जो तू ढूंढ़ता यो फिर रहा,
है तेरे अन्दर,
कि बाहर मात्र माया.
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