राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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तुम्हारी साफगोई पर जो निसार हो गए,
आज शाम को सरे वो ‘शराब’ हो गए.
उनके एहसान गिनो तो कुफ्र है,
जब मुह से सुना, तो हिसाब हो गए.
हिना का रंग तो फूस जैसा ही है,
तुम्हारे हाथ जब चढ़े तो हिजाब हो गए.
आज भी फ़ासी नहीं दिया उसको!
हुक्मरान ही ‘कसाब’ हो गए.
‘बत्तीस रुपये में ही घर चल जायेगा’,
ये सांसदों के जवाब हो गए !!
किसी का तजुर्बा पन्नो पे छितरा गया,
जिल्द के साथ वो किताब हो गए.
जो देखा है खुली आँखों से,
दरअसल वही ख़्वाब हो गए.
अपनी रोटी खिला दी भूखे को,
आज तुम माहताब हो गए.
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