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ललकार

राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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रात बड़ी देर से है, एक किरण बहुत जरूरी हो गई!
कब तक सर कटाएँ, बगावत जनता की मजबूरी हो गई.
ये कलम नीली नहीं चलती, इसकी स्याही सिन्दूरी हो गई.
असलहो की दरकार किसे है? हमारी जबान ही छूरी हो गई.
इलेक्शन आने वाले हैं, सरकार की नीद पूरी हो गई.
फिर वोट चाहिए, कौम से मिलने की मंजूरी हो गई.
गाँव में जा के देखे कौन! ऑफिस में खाना-पूरी हो गई.
कोई सम्बन्ध ही नहीं, दोनो भारत में बड़ी दूरी हो गई.
हक अपना पहचान लिया, जिन्दा लाश से जम्हूरी हो गई. (जम्हूरी: जनता)
कई मशाल दिख रही है, चिंगारी की जरूरत पूरी हो गई.
सीने में जलती है तो आग, पेट में - जी हुजूरी हो गई,
अगर चूलें नहीं हिली, तो बात फिर अधूरी हो गई.       (चूलें: नीव)

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