राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
- 69 Posts
- 377 Comments
क्या ये सुबह नई शुरुआत है, या फिर कल का बस आज से मिलाप है.
मुह और आँखे लाल है. सूरज के लिए भी अभी प्रात है.
निकले हैं किसी उधेड़ बुन में. पेट की चिंता भी साथ है.
सबको बराबर नहीं मिलता, वक्त में भी नहीं साम्यवाद है
नीली पीली बत्तियों वाले स्टेशन. पुराने और नए चेहरोँ की पांत है.
आठ बजे कुछ के लिए भोर या दोपहर, कुछ के लिए रात है.
प्लेटफोर्म कई सरे इन्सानो और कुछ श्वानो की खाट है.
चिल्लाते, धकियाते, थूकते यहाँ वहां, भारतीयता यहाँ पर आजाद है.
सिर्फ संघर्ष है, सीट का, बड़ा ही धर्म-निरपेक्ष प्रयास है.
कुछ को सीट मिली, बाकी - के मन में समाजवाद है.
सिग्नल के इंतज़ार में ऊब गई- जनता बदहवास है, बदमिजाज है.
कुलबुलाती भुनभुनाती भीड़, खाती समोसा, प्रदूषण और अखबार है.
बच बच के चलती ट्रेन, झुग्गी-झोपड़ियो से, महानगर आबाद है.
घिसटती हुई, रेंगती हुई, भागती हुई, हर ट्रेन का अपना भाग्य है.
किसी का स्टेशन आ गया, कोई जोह रहा वाट है.
Read Comments