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दर्द स्याही होता है

राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'
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दर्द स्याही होता है- तो कलाम बनते हैं
.इश्क रुसवाई करता है- तो जाम बनते हैं.

बचपन के खिलोनो में ढूंढता रहता हूँ,
जवान जब से हुए हैं, अनजान बनते हैं

. "दिल में ढूढ़, गरीब को रोटी खिला,
ईट पत्थर से भी कहीं राम बनते हैं."

जिनके नारों से खून बहा बेईम्तिहान,
कोर्ट में आज वो नादान बनते हैं.

धूप में छाँव में, पाँव के छालों में - चलते रहे अनवरत, वही नाम बनते हैं.

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